"तेरहवीं सीढ़ी"
आरव हाल ही में शिमला के किनारे स्थित एक पुरानी कोठी में शिफ्ट हुआ था। चारों तरफ घना जंगल, और बीच में एक अकेली, खामोश हवेली। कोठी बहुत सस्ती थी — जरूरत से ज्यादा सस्ती। मगर आरव को शांति चाहिए थी, अपने उपन्यास पर काम करने के लिए।
स्थानीय लोग उस कोठी के पास भी नहीं फटकते थे। जब भी कोई उसका ज़िक्र करता, बस एक ही बात कहते —
"वो जगह ठीक नहीं है... वहाँ तेरहवाँ कुछ अधूरा है..."
कोठी की सबसे अजीब बात थी — लकड़ी की पुरानी सीढ़ियाँ जो अटारी तक जाती थीं। आरव ने ध्यान दिया कि सीढ़ियाँ कुल तेरह थीं। मगर जब भी वह चढ़ता, वह सिर्फ बारह गिनता। हर बार।
शुरुआत में उसे लगा शायद उसकी गिनती गलत हो जाती है। लेकिन ऐसा हर दिन होता।
एक रात, करीब 30 बजे, उसकी नींद टूटी। कमरे में एक अजीब सर्दी भर गई थी। और फिर उसने सुना…
"किर्र्र्र..."
"किर्र्र्र..."
कोई बहुत धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। एक-एक कर... लकड़ी की हर सीढ़ी चरमराने लगी।
आरव की सांसें तेज़ हो गईं। उसने ध्यान से गिनना शुरू किया —
एक... दो... तीन... बारह...
तेरह।
इस बार तेरहवीं सीढ़ी भी चरमराई थी।
उसका गला सूख गया। उसे याद आया — वो सीढ़ी कभी नहीं बजती थी, क्योंकि वह वजूद में ही नहीं थी।
कांपते हुए आरव ने दरवाजा खोला। सीढ़ियाँ अंधेरे में खोई हुई थीं। और फिर उसे कुछ दिखा…
सीढ़ियों के आखिरी छोर पर एक और आरव खड़ा था — हूबहू वैसा ही चेहरा, वैसी ही आँखें। बस अंतर था तो ये कि उसकी आँखें काली और खाली थीं।
वो मुस्कुराया और बोला —
"अब तुझे भी पूरी गिनती समझ आ गई..."
उस रात के बाद से आरव कभी नहीं दिखा। लोग कहते हैं, अब जब कोई उस हवेली में जाता है…
तो हर रात 3 बजे, तेरहवां कदम दो बार बजता है।